तू चमक बरस मैं मिट्टी हूँ
तुझ संग मिल जाऊँ
गर कोई बोया होगा तो
उस बीज को उपजाऊँ ।।

न मुझ में जहर डाल
अपने मतलब का
जो कुदरत दिया है
उसे संभाल कर रख
नहीं तो कहर बरसाऊँगा ।।
कुदरत को समझ
मुझको समझ
रे बंदे…
मैं मिट्टी हूँ… मिट्टी
जो बोय उसे लहलहाऊँ ।।
तू चमक बरस मैं मिट्टी हूँ
तुझ संग मिल जाऊँ
गर कोई बोया होगा तो
उस बीज को उपजाऊँ ।।
न मुझ में जहर डाल
अपने मतलब का
जो कुदरत दिया है
उसे संभाल कर रख
नहीं तो कहर बरसाऊँगा ।।
कुदरत को समझ
मुझको समझ
रे बंदे…
मैं मिट्टी हूँ… मिट्टी
जो बोय उसे लहलहाऊँ ।।
कब तक अपने ही साख काँटोगे
कब तक नहीं बदलोगे
तेरी मेरी जिंदगी चार दिन की
पर ये जिंदगी देने वाली पेड़ों को
कब तक यूँ ही काँटोगे ।।
कब तक अपने ऊँची इमारतों के लिए
छोटे बड़े बसे पेड़ों के घरोंदे उजड़ोगे
आखिर कब तक
विकास के नाम पर
ये दुनिया उजड़ोगे
आखिर कब तक
आने ही साख को काँटोगे ।।
मेरे शहर में रहती है
जो मेरे दिल में बसती है
कभी जिसमें मैं
डूब जाया करता था
अपना थकान मिटा
चैन पाया करता था
अब वो सुखी सुखी सी
बुझी बुझी सी लगती है
मेरे स्वार्थ ने काट दिये है वृक्ष सारे
लांघ दिये है मैं सीमाऐं सारे
तोड़ दिये है पार ओर छोर
इस कारण से अब वो ताल
सुखी सुखी लगती है
अब ये जीवन रुखी रुखी सी
प्राणहीन लगती है ।।
हर जगह धुँआ है
कहीं सिगरेट का
कहीं विकास दिखाती
कारखानों की चिमनियों का
कहीं तेज दौड़ती
मोटर गाड़ियों का
ये धुँआ प्रकृति को
हम मनुष्य ने दिये है
और आज हम
इन धुँओं से
पीछा छुड़वाना चाहते है
पर… पेड़ पौधे
लगाना नहीं चाहते है ।।
किसी को धरती से प्यार नहीं
इस वसुंधरा से प्यार नहीं
मनुष्य को मनुष्य से, कोई सरोकार नहीं
बस, सब अपना स्वार्थ चीखे है ।1।
धरती छेद रहे, वृक्ष कट रहे
मनुष्य अपना आशियाना बन रहा
जीव जंतु तिलतिल हो रहे
परिंदों के आशियाना उजाड़ रहा ।2।
नज़र तलाश रही एक एक बूंद को
गला तरस रही एक एक घुट को
धरती फट रही, वेदना बादल बरसते नहीं
मेघ काले तो है
लेकिन… न वृक्ष है, न पानी है
प्रदूषण के कारण ठहरते नहीं ।3।
कहीं गैस के सिलेंडर है कहीं चेहरों पे नकाब
वृक्ष काँट इमारतें बना लो सजा लो ख्वाब ||
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मैं रहूँ ना रहूँ मेरे अल्फ़ाज़ जाविदां हैं, कल मिलू ना मिलू यह अंदाज़ अलहदा है...
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