स्पंदन सांसों का तुम से ही
धमनी शिराओं में
रक्त का प्रवाह तुम से ही
जिस परमेश्वर को नहीं देखा
वो आस्था तुम से ही ।।
ये संभले हुए मेरे कदम
माँ, तुम से ही ।।
मेरा रुप, रंग, ये कद शरीर
सब, माँ तुम से ही ।।
मेरे मुख का पहला शब्द
माँ तुमसे ही हो
मेरा आचरण, व्यवहार, ये संस्कार
सब , माँ तुम से ही ।।
तुमने जाया है तो मैं हूँ
तुमने जाया और पिता का पहचान दी है
धूप छाओं, वर्षा शीत का पहचान दी है
तेरे ममता ने, तेरे आँचल ने
हर रोग दोष से रक्षा की है
अच्छे बुरे की सिख दी है ।।
माँ, तुम ही कहानी हो
तुम ही लोरी हो
मेरे ईश्वर, मेरे परमेश्वर तुम हो
मेरे गुरु, गुरुवेश्वर तुम ही हो ।।
तुम ही काव्य कविता
गद्य पद्य, सब तुम ही हो
तुम ही दोहा लोरा सोरठा
छंद अलंकार रस, सब, तुम ही हो
माँ, मेरा व्याकरण, हलंत, विसर्ग,
विराम, तुम ही हो ।।
माँ, तुम से, मैं हूँ
माँ है तो , मैं हूँ ।।
बहुत ही खूबसूरत कविता।बिल्कुल सही कहा माँ है तो हम हैं।
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जी धन्यवाद… मेरे प्रयत्न को सरहाने के लिए ।
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Khubsurat Kavita hai janaab. dil ki gehrai se likhi gayi hai. I am reblogging this as the topic is very close to my heart.
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आपका धन्यवाद, मेरे प्रयास को प्रोत्साहन देने के लिए, With pleasure …
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इसका पहला और तीसरा भाग भी है… पढ़ना चाहें तो ऊपर के और नीचे के लिंक को click करें … धन्यवाद ।
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Reblogged this on sikiladi and commented:
Words emerge aplenty yet words fail the magnanimity of a Mother.
Read on this poet’s expression….
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